आयुर्वेद का इतिहास एवं मूलभूत सिद्धांत

आयुर्वेद का इतिहास एवं मूलभूत सिद्धांत (Ayurveda:  History and Basic Principles)

आयुर्वेद प्राचीन भारत में चिकित्सा की प्रयोग की जाने वाली पद्धति है जिसमें रोग का निवारण जड़ से किया जाता है. इस विद्या का प्रयोग भारत के ऋषि-मुनि एवं ज्ञानियों द्वारा 2000 से 5000 वर्ष पूर्व किया जाता था. यह चिकित्सा प्रणाली वास्तव में modern medicine से ग़ूढ और अधिक प्रभावशाली है क्योंकि इसमे रोग के वास्तविक कारण का निवारण किया जाता है. शरीर में स्वास्थ का निर्माण कर यह चिकित्सा प्रणाली अनियमित जीवन शैली से उत्पन्न अनेक रोगों को सफलता पूर्वक निवृत्त करती है. आयुर्वेद के अनुसार मन और शरीर दोनों आपस में जुड़े हुए हैं. मन में उत्पन्न दोषों से ही शरीर में व्याधि प्रगट होती है तथा शारीरिक रोगों के निवारण के लिए मानसिक स्वास्थ का विशेष महत्व आयुर्वेद में निर्धारित है.


प्राचीन काल में आयुर्वेद का विज्ञान मौखिक रूप से ही गुरु द्वारा शिष्य को दिया जाता था . ऋग्वेद में आयुर्वेद संबंधित चिकित्सा वर्णन सबसे पहले देखने को मिलता है. परंतु मूलतः आयुर्वेद अथर्ववेद का अंग है. बाद में सरल रूप देते हुए आयुर्वेद के मूल सिद्धांतों को दर्शाने वाले कुछ लिखित मूलग्रंथ सुश्रुत, चरक और वागभट्ट द्वारा दिए गये हैं. इसके अलावा अन्य छोटे ग्रंथों में आयुर्वेदिक पद्धति के अनुरूप विभिन्न रोग क्षेत्रों में अनेक चिकित्सा प्रणालियों का वर्णन है. परंतु विस्मित करने वाली बात यह है कि सभी ग्रंथ और अलग प्रकार की चिकित्सा में आयुर्वेद के मूल सिद्धांतों पर ही केंद्रित हैं जिन्हे रोज़मर्रा के जीवन में भी सरलता पूर्वक प्रयोग किया जा सकता है. इससे भी अधिक आश्चर्य तब होता है जब हम प्रकृति तथा संपूर्ण ब्रह्मांड में आयुर्वेद के इन्ही मूलभूत सिद्धांतों को लागू पाते हैं. यह कहना कोई अतिशयोक्ति नही की आयुर्वेद एक विस्मयकारी, रहस्यदर्शी और वैज्ञानिक विद्या है जिसका विस्तार पूरे विश्व में मिलता है.

आयुर्वेद में निहित तीन दोष (Three doshas of Ayurveda: Vata, Pitta, Kapha)


वात: वात वायु और आकाश से निर्मित तत्व है जो की रुक्ष, ठंडा, खुरदुरा, सूक्ष्म, गतिशील, पारदर्शी और सूखाने वाला द्रव्य है. यह शरीर में हो रही आंदोलन और गति-संबंधी सभी कार्यों को होने में सहयोग देता है. शरीर में रक्त का आंदोलन, तंत्रिकायों में सूचना का प्रसारण, पेरिस्टल्स्स peristalsis (मांसपेशियों की वह लयबद्ध गतिमई क्रिया जिससे विभिन्न शारीरिक कार्य होते हैं- जैसे भोजन का निगलना), मलोत्सर्ग आदि सभी कार्य वात द्वारा ही संभव हैं. यदि इस दोष में असंतुलन उत्पन्न हो जाए तो यह इनमें से किसी भी क्रिया पर असर डाल सकता है.
वात दोष की विकृति के कुछ लक्षण: शरीर का हलकापन, उँची आवाज़ को सहन ना कर पाना, कब्जियत, ठंडी और गर्म वस्तूयों को ना सह पाना, नाड का खिच जाना.

पित्त:  इस दोष से अग्नि और जल दोनों के ही गुण निहित हैं. यह तीक्ष्ण, गर्म, क्षारमई, चिकनाई युक्त लसलसा, पीले रंग का पदार्थ है जिस से शरीर में हो रहे प्रत्येक रूपांतरण के कार्य में सहायता मिलती है. पाचन की क्रिया को सुचारू रूप से करना, चयपचय (metabolism), इंद्रियों की संवेदनशीलता तथा ग्राहक (कुछ भी ग्रहण करना या लेना) शक्ति, ये सब पित्त द्वारा ही किया जाता है. पित्त में उत्पन्न दोष से इन अब कार्यों में तीक्ष्णता अथवा अवरोध उत्पन्न हो सकता है. इससे जलन या सूजन का आभास भी हो सकता है.
पित्त दोष की विकृति के कुछ लक्षण: चिड़चिड़ापन, खाली पेट होने पर वमन होना, जोड़ों में सूजन,  शरीर में अत्यंत गर्मी का अनुभव.

कफ: पृथ्वी और जल से निर्मित यह दोष भारी, ठंडा, तैलीय, घना, स्निग्ध, मधुर, भोथरा, ठोस, स्थाई पदार्थ है. यह शरीर को स्थिरता और आकार प्रदान करता है. कफ शरीर के सप्त धातुयों (रक्त, रस, माँस, मेध, मज्जा, अस्थि, शुक्र) को पुष्टि प्रदान कर इनके निर्माण में सहायता करता है. कफ के बढ़ने से शरीर में माँस, और वसा(fat) बढ़ जाती है जिससे शरीर में भारीपन और आकार में बढ़ोत्तरी हो जाती है.
कफ दोष की विकृति के कुछ लक्षण: अधिक श्लेष्मा का बनना, जीव्हा पर मोटी सफेद परत, वस्तूयों के प्रति अति राग, आलस्य, प्रमाद, ज़िद्दीपन.

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